लावा

 

(काव्य संग्रह )

 

 

जावेद अख़तर

 

 

 

 

ज़बान 

कोई ख़याल

और कोई भी जज़्बा

कोई भी शय हो

जाने उसको

पहले-पहल आवाज़ मिली थी

या उसकी तस्वीर बनी थी

सोच रहा हूँ

 

कोई भी आवाज़

लकीरों में जो ढली

तो कैसे ढली थी

सोच रहा हूँ

ये जो इक आवाज़ अलिफ़ है

सीधी लकीर में

ये आिख़र किसने भर दी थी

क्यों सबने ये मान लिया था

सामने मेरी मेज़ पे इक जो फल रक्खा है

 

इसको सेब ही क्यों कहते हैं

सेब तो इक आवाज़ है

इस आवाज़ का इस फल से

जो अनोखा रिश्ता बना है

कैसे बना था

और ये टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें

जिनको हर्फ़ कहा जाता है

ये आवाज़ों की तस्वीरें

कैसे बनी थीं

आवाज़ें तस्वीर बनीं

या तस्वीरें आवाज़ बनी थींr

सोच रहा हूँ

 

सारी चीज़ें

सारे जज़्बे

सारे ख़याल

और उनका तआरूफ़

उनकी ख़बर और

उनके हर पै॰गाम को देने पर फ़ाइज़

सारी आवाज़ें

इन आवाज़ों को अपने घर में ठहराती

अपनी अमान में रखती

टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें

किस ने ये कुनबा जोड़ा है

सोच रहा हूँ।

***

ग़ज़ल

जिधर जाते हैं सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता

मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता

 

ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना, हामी भर लेना

बहुत हैं फ़ायदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता

 

मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती है

किसी का भी हो सर, क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता

 

बुलंदी पर इन्हें मिट्टी की ख़ुश्बू तक नहीं आती

ये वो शाखें हैं जिनको अब शजर अच्छा नहीं लगता

 

ये क्यों बाक़ी रहे आतिश-ज़नो, ये भी जला डालो

कि सब बेघर हों और मेरा हो घर, अच्छा नहीं लगता

 

***

 

ग़ज़ल

कभी-कभी मैं ये सोचता हूँ कि मुझको तेरी तलाश क्यों है

कि जब हैं सारे ही तार टूटे तो साज़ में इरतेआश क्यों है

 

कोई अगर पूछता ये हमसे, बताते हम गर तो क्या बताते

भला हो सब का कि ये न पूछा कि दिल पे ऐसी ख़राश क्यों है

 

उठाके हाथों से तुमने छोड़ा, चलो न दानिस्ता तुमने तोड़ा

अब उल्टा हमसे तो ये न पूछो कि शीशा ये पाश-पाश क्यों है

 

अजब दोराहे पे ज़िंदगी है कभी हवस दिल को खींचती है

कभी ये शर्मिंदगी है दिल में कि इतनी फ़िक्रे-मआश क्यों है

 

न फ़िक्र कोई न जुस्तुजू है, न ख्वाब कोई न आरज़ू है

ये शख्स तो कब का मर चुका है, तो बेकफ़न फिर ये लाश क्यों है

 

***

 

ये खेल क्या है

मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है

और अब

मेरी चाल के इंतेज़ार में है

मगर मैं कब से

æफेद ख़ानों

सियाह ख़ानों में रक्खे

काले-सफ़ेद मोहरों को देखता हूँ

मैं सोचता हूँ

ये मोहरे क्या हैं

 

 अगर मैं समझूँ

कि ये जो मोहरे हैं

सिर्फ़ लकड़ी के हैं खिलौने

तो जीतना क्या है हारना क्या

न ये ज़रूरी

न वो अहम है

अगर ख़ुशी है न जीतने की

न हारने का ही कोई ग़म है

तो खेल क्या है

मैं सोचता हूँ

जो खेलना है

तो अपने दिल में यक़ीन कर लूँ

ये मोहरे सचमुच के बादशाहो -व॰जीर

सचमुच के हैं प्यादे

और इनके आगे है

दुश्मनों की वो फ़ौज

रखती है जो कि मुझको तबाह करने के

सारे मनसूबे

सब इरादे

मगर मैं ऐसा जो मान भी लूँ

तो सोचता हूँ

ये खेल कब है

ये जंग है जिसको जीतना है

ये जंग है जिसमें सब है जायज़

कोई ये कहता है जैसे मुझसे

ये जंग भी है

ये खेल भी है

ये जंग है पर खिलाड़ियों की

ये खेल है जंग की तरह का

मैं सोचता हूँ

जो खेल है

इसमें इस तरह का उसूल क्यों है

कि कोई मोहरा रहे कि जाए

मगर जो है बादशाह

उसपर कभी कोई आँच भी न आए

व॰जीर ही को है बस इजाज़त

कि जिस तरफ़ भी वो चाहे जाए

 

मैं सोचता हूँ

जो खेल है

इसमें इस तरह का उसूल क्यों है

प्यादा जो अपने घर से निकले

पलट के वापस न जाने पाए

मैं सोचता हूँ

अगर यही है उसूल

तो फिर उसूल क्या है

अगर यही है ये खेल

तो फिर ये खेल क्या है

मैं इन सवालों से जाने कब से उलझ रहा हूँ

मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है

और अब मेरी चाल के इंतेज़ार में है।

 

***

 

ग़ज़ल

कल जहाँ दीवार थी, है आज इक दर देखिए

क्या समाई थी भला दीवाने के सर, देखिए

 

पुर-सुकूँ लगती है कितनी झील के पानी पे बत

पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए

 

छोड़कर जिसको गये थे आप कोई और था

अब मैं कोई और हूँ वापस तो आकर देखिए

 

छोटे-से घर में थे देखे ख्वाब महलों के कभी

और अब महलों में हैं तो ख्वाब में घर देखिए

 

ज़हने-इंसानी इधर, आफ़ाक़ की वुसअत उधर

एक मंज़र है यहाँ अंदर कि बाहर देखिए

 

अक्ल ये कहती है दुनिया मिलती है बाज़ार में

दिल मगर ये कहता है कुछ और बेहतर देखिए

 ***

 

ग़ज़ल

हमने ढूँढे भी तो ढूँढे हैं सहारे कैसे

इन सराबों पे कोई उम्र गुज़ारे कैसे

 

हाथ को हाथ नहीं सूझे, वो तारीकी थी

आ गये हाथ में क्या जाने सितारे कैसे

 

हर तरफ़ शोर उसी नाम का है दुनिया में

कोई उसको जो पुकारे तो पुकारे कैसे

 

दिल बुझा जितने थे अरमान सभी ख़ाक हुए

राख में फिर ये चमकते हैं शरारे कैसे

 

न तो दम लेती है तू और न हवा थमती है

ज़िंन्दगी ज़ुल्फ़ तिरी कोई सँवारे कैसे

 ***

 

आँसू

किसी का ग़म सुन के

मेरी पलकों पे

एक आँसू जो आ गया है

ये आँसू क्या है

 

ये आँसू क्या इक गवाह है

मेरी दर्द-मंदी का मेरी इंसान-दोस्ती का

ये आँसू क्या इक सुबूत है

मेरी ज़िंदगी में ख़ुलूस की एक रौशनी का

ये आँसू क्या ये बता रहा है

कि मेरे सीने में एक हस्सास दिल है

जिसने किसी की दिलदोज़ दास्ताँ जो सुनी

तो सुनके तड़प उठा है

पराये शोलों में जल रहा है

पिघल रहा है

मगर मैं फिर ख़ुद से पूछता हूँ

ये दास्ताँ तो अभी सुनी है

ये आँसू भी क्या अभी ढला है

ये आँसू

क्या मैं ये समझूँ

पहले कहीं नहीं था

मुझे तो शक है कि ये कहीं था

ये मेरे दिल और मेरी पलकों के दरमियाँ

इक जो फ़ासला है

जहाँ ख़यालों के शहर ज़िंन्दा हैं

और ख्वाबों की तुर्बतें हैं

जहाँ मुहब्बत के उजड़े बा॰गोंं में

तलि्ख़यों के बबूल हैं

और कुछ नहीं है

जहाँ से आगे हैं

उलझनों के घनेरे जंगल

 

ये आँसू

शायद बहुत दिनों से

वहीं छिपा था

जिन्होंने इसको जनम दिया था

वो रंज तो मसलेहत के हाथों

न जाने कब क़त्ल हो गये थे

तो करता फिर किसपे नाज़ आँसू

कि हो गया बेजवाज़ आँसू

यतीम आँसू, यसीर आँसू

न मोतबर था

न रास्तों से ही बाख़बर था

तो चलते चलते

वो थम गया था

ठिठक गया था

झिझक गया था

 

इधर से आज इक किसी के ग़म की

कहानी का कारवाँ जो गुज़रा

यतीम आँसू ने जैसे जाना

कि इस कहानी की सरपरस्ती मिले

तो मुम्किन है

राह पाना

तो इक कहानी की उंगली थामे

उसी के ग़म को रूमाल करता

 उसी के बारे में

झूठे-सच्चे सवाल करता

ये मेरी पलकों तक आ गया है।

 ***

 

ग़ज़ल

यक़ीन का अगर कोई भी सिलसिला नहीं रहा

तो शुक्र कीजिए, कि अब कोई गिला नहीं रहा

 

न हिज्र है न वस्ल है अब इसको कोई क्या कहे

कि फूल शाख़ पर तो है मगर खिला नहीं रहा

 

ख़ज़ाने तुमने पाए तो ग़रीब जैसे हो गए

पलक पे अब कोई भी मोती झिलमिला नहीं रहा

 

बदल गई है ज़िंदगी, बदल गये हैं लोग भी

ख़ुलूस का जो था कभी वो अब सिला नहीं रहा

 

जो दुश्मनी ब॰खील से हुई तो इतनी ख़ैर है

कि ज़हर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा

 

लहू में जज़्ब हो सका न इल्म तो ये हाल है

कोई सवाल ज़हन को जो दे जिला, नहीं रहा

  ***

 

ग़ज़ल

बज़ाहिर क्या है जो हासिल नहीं है

मगर ये तो मिरी मंज़ल नहीं है

ये तोदा रेत का है, बीच दरिया

ये बह जाएगा ये साहिल नहीं है

 

बहुत आसान है पहचान इसकी

अगर दुखता नहीं तो दिल नहींr है

 

मुसाफ़र वो अजब है कारवाँ में

कि जो हमराह है शामिल नहीं है

 

बस इक मक़तूल ही म॰क्तूल कब है

बस इक क़ातिल ही तो क़ातिल नहीं है

 

कभी तो रात को तुम रात कह दो

ये काम इतना भी अब मुश्किल नहींr है

 ***

 

कायनात

मैं कितनी सदियों से तक रहा हूँ

ये कायनात और इसकी वुस्अत

तमाम हैरत तमाम हैरत

ये क्या तमाशा ये क्या समाँ है

 ये क्या अयाँ है ये क्या निहाँ है

अथाह सागर है इक ख़ला का

न जाने कब से न जाने कब तक

कहाँ तलक है

हमारी नज़रों की इंतेहा है

जिसे समझते हैं हम फ़लक है

 

ये रात का छलनी-छलनी-सा काला आस्माँ है

कि जिसमें जुगनू की शक्ल में

बेशुमार सूरज पिघल रहे हैं

शहाबे-साक़ब हैं

या हमेशा की ठंडी-काली फ़िज़ाओं में

जैसे आग के तीर चल रहे हैं

करोड़हा नूरी बरसों के फ़ासलों में फैली

ये कहकशाएँ

ख़ला को घेरे हैं

या ख़लाओं की ॰कैद में हैं

ये कौन किसको लिए चला है

हर एक लम्हा

करोड़ों मीलों की जो मुसाफ़त है

इनको आिख़र कहाँ है जाना

अगर है इनका कहीं कोई आिख़री ठिकाना

तो वो कहाँ है

 

जहाँ कहीं है

सवाल ये है

वहाँ से आगे कोई ज़मीं है

कोई फ़लक है

 अगर नहीं है

तो ये नहीं कितनी दूर तक है

 

मैं कितनी सदियों से तक रहा हूँ

ये कायनात और इसकी वुस्अत

तमाम हैरत तमाम हैरत

सितारे जिनकी स॰फीर किरनें

करोड़ों बरसों से राह में हैं

ज़मीं से मिलने की चाह में हैं

कभी तो आके करेंगी ये मेरी आँखें रौशन

कभी तो आएगा मेरे हाथों में रौशनी का एक ऐसा दामन

कि जिसको थामे मैं जाके देखूंगा इन ख़लाओं के

फैले आँगन

कभी तो मुझको ये कायनात अपने राज़ खुलके

सुना ही देगी

ये अपना आ॰गाज़ अपना अंजाम

मुझको इक दिन बता ही देगी

 

अगर कोई वाइज़ अपने मिम्बर से

नख़वत-आमेज़ लहजे में ये कहे

कि तुम तो कभी समझ ही नहीं सकोगे

कि इस क़दर है ये बात गहरी

तो कोई पूछे

जो मैं न समæझा

तो कौन समझेगा

और जिसको कभी न कोई समझ सके

ऐसी बात तो फिर ॰फु॰जूल ठहरी।

 ***

 

ग़ज़ल

जीना मुश्किल है कि आसान ज़रा देख तो लो

लोग लगते हैं परेशान ज़रा देख तो लो

 

फिर मुक़र्रिर कोई सरगर्म सरे-मिम्बर है

किसके है क़त्ल का सामान ज़रा देख तो लो

 

ये नया शहर तो है ॰खूब बसाया तुमने

क्यों पुराना हुआ वीरान ज़रा देख तो लो

 

इन चिरा॰गों के तले ऐसे अंधेरे क्यों हैं

तुम भी रह जाओगे हैरान ज़रा देख तो लो

 

तुम ये कहते हो कि मैं ॰गैर हूँ फिर भी शायद

निकल आए कोई पहचान ज़रा देख तो लो

 

ये सताइश की तमन्ना ये सिले की परवाह

कहाँ लाए हैं ये अरमान ज़रा देख तो लो

 

***

 

ग़ज़ल

तू किसी पे जाँ को निसार कर दे कि दिल को क़दमों में डाल दे

कोई होगा तेरा यहाँ कभी ये ख़याल दिल से निकाल दे

 

मिरे हुक्मरां भी अजीब हैं कि जवाब लेके वो आए हैं

मुझे हुक्म है कि जवाब का हमें सीधा-सीधा सवाल दे

 

रगो-पै में जम गया सर्द ॰खूँ न मैं चल सकूँ न मैं हिल सकूँ

मिरे ग़म की धूप को तेज़ कर, मिरे ॰खून को तू उबाल दे

 

वो जो मुस्कुरा के मिला कभी तो ये फ़िक्र जैसे मुझे हुई

कहूँ अपने दिल का जो मुद्दआ, कहीं मुस्कुरा के न टाल दे

 

ये जो ज़हन दिन की है रौशनी तो ये दिल है रात में चाँदनी

मुझे ख्वाब उतने ही चाहिएं ये ज़माना जितने ख़याल दे

 

***

 

 

एतेराफ़

सच तो ये है ॰कुसूर अपना है

चाँद को छूने की तमन्ना की

आस्मां को ज़मीन पर माँगा

फूल चाहा कि पत्थरों पे खिले

काँटों में की तलाश ख़ुशबू की

आग से माँगते रहे ठंडक

ख्वाब जो देखा

चाहा सच हो जाए

इसकी हमको सज़ा तो मिलनी थी ।

 

***

 

ग़ज़ल

मिसाल इसकी कहाँ है कोई ज़माने में

कि सारे खोने के ग़म पाए हमने पाने में

 

वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे

अजीब बात हुई है उसे भुलाने में

 

जो मुंतिज़र न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा

कि हमने देर लगा दी पलटके आने में

 

लतीफ़ था वो तख़य्युल से, ख्वाब से नाज़ुक

गँवा दिया उसे हमने ही आज़माने में

 

समझ लिया था कभी इक सराब को दरिया

पर इक सुकून था हमको फ़रेब खाने में

 

झुका दर॰ख्त हवा से, तो आँधियों ने कहा

॰ज्यादा फ़॰र्क नहीं झुकने-टूट जाने में

 

***

 

ग़ज़ल

यही हालात इब्तेदा से रहे

लोग हमसे ख़फ़ा-ख़फ़ा-से रहे

 

इन चिरा॰गों में तेल ही कम था

क्यों गिला हमको फिर हवा से रहे

 

बहस, शतरंज, शेर, मौसीक़ी

तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे

 

ज़िंदगी की शराब माँगते हो

हमको देखो, कि पीके प्यासे रहे

 

उसके बंदों को देखकर कहिए

हमको उम्मीद क्या ख़ुदा से रहे

 ***

 

ख़ुदा हाफ़ज़

मुझे वो धुंध में लिपटी हुई

मासूम सदियाँ याद आती हैं

कि जब तुम हर जगह थे

हर तरफ़ थे

हर कहीं थे तुम

रिहाइश थी तुम्हारी आस्मानों में

ज़मीं के भी मकीं थे तुम

तुम्हीं थे चाँद और सूरज के मुल्कों में

तुम्हीं तारों की नगरी में

हवाओं में

फ़िज़ाओं  में

दिशाओं में

सुलगती धूप में तुम थे

तुम्हीं थे ठंडी छाँवों में

तुम्हीं खेतों में उगते थे

तुम्हीं पेड़ों पे फलते थे

तुम्हीं बारिश की बूँदों में

तुम्हीं सारी घटाओं में

हर इक सागर से आगे तुम थे

हर पर्बत के ऊपर तुम

वबाओं  में

हर इक सैलाब में

सब ज़लज़लों में

हादसों में भी

रहा करते थे छिप कर तुम

हर इक आँधी में

तू॰फाँ में

समुंदर में

बयाबाँ में

हर इक मौसम हर इक रूत में

तुम्हीं हर इक सितम में थे

तुम्हीं हर इक करम में थे

सभी पाकीज़ा नदियों में

मुक़द्दस आग में तुम थे

दरिंदों और चरिंदां

बिच्छुओं में नाग में तुम थे

सभी के डंक में तुम थे

सभी के ज़हर में तुम थे

जो इंसानों पे आते हैं

हर ऐसे क़हर में तुम थे

मगर सदियों के तन से लिपटी

धुंध अब छट रही है

अब कहीं कुछ रौशनी-सी हो रही है

और कहीं कुछ तीरगी सी घट रही है

ये उजाले साफ़ कहते हैं

न अब तुम हो वबाओं में

न अब तुम हो घटाओं में

न बिच्छू में न तो अब नाग में तुम हो

न आँधी और तू॰फाँ

और न तो पाकीज़ा नदियों

और मुक़द्दस आग में तुम हो

 

अदब है शर्त

बस इतना कहूँगा

तुमने शायद मुझ पे है ये मेहरबानी की

मैं अपने इल्म की मश्अल लिए

पहुँचा जहाँ हूँ

मैंने देखा

तुमने है न॰क्ले-मकानी की

मगर अब भी ख़ला की वुस्अतों में

तुम ही रहते हो

जिसे कहते हैं िक़स्मत

अस्ल में

हालात का बिफरा समुंदर है

मगर अब तक यक़ीने-आम है

बनके समुंदर

तुम ही बहते हो

 

मुझे ये मानना होगा

वहाँ तुम हो

जहाँ ये राज़ है पिन्हाँ

कि ऐसी कायनाते-बेकराँ की इब्तेदा

और इंतेहा क्या है

वहाँ तुम हो

जहाँ ये आगही है

मौत के इस पर्दे के पीछे छिपा क्या है

अभी कुछ दिन वहाँ रह लो

मगर इतना बता दूँ मैं

उधर मैं आनेवाला हूँ।

 

***

 

ग़ज़ल

जब आइना कोई देखो इक अजनबी देखो

कहाँ पे लाई है तुमको ये ज़िंदगी देखो

 

मुहब्बतों में कहाँ अपने वास्ते ॰फुर्सत

जिसे भी चाहो वो चाहे मिरी ख़ुशी देखो

 

जो हो सके तो ॰ज्यादा ही चाहना मुझको

कभी जो मेरी मुहब्बत में कुछ कमी देखो

 

जो दूर जाए तो ग़म है जो पास आए तो दर्द

न जाने क्या है वो कमब॰ख्त आदमी देखो

 

उजाला तो नहीं कह सकते इसको हम लेकिन

ज़रा-सी कम तो हुई है ये तीरगी देखो

 

***

 

ग़ज़ल

सारी हैरत है मिरी सारी अदा उसकी है

बेगुनाही है मिरी और सæजा उसकी है

 

मेरे अल्फ़ाज़ में जो रंग है वो उसका है

मेरे एहसास में जो है वो फ़िज़ा उसकी है

 

शे'र मेरे हैं मगर उनमें मुहब्बत उसकी

फूल मेरे हैं मगर बादे-सबा उसकी है

 

इक मुहब्बत की ये तस्वीर है दो रंगों में

शौक़ सब मेरा है और सारी हया उसकी है

 

हमने क्या उससे मुहब्बत की इजाज़त ली थी

दिल-शिकन ही सही, पर बात बजा उसकी है

 

एक मेरे ही सिवा सबको पुकारे है कोई

मैंने पहले ही कहा था ये सदा उसकी है

 

॰खून से सींची है मैंने जो ज़मीं मर-मर के

वो ज़मीं, एक सितमगर ने कहा, उसकी है

 

 

उसने ही इसको उजाड़ा है इसे लूटा है

ये ज़मीं उसकी अगर है भी तो क्या उसकी है

 

***

परस्तार

वो जो कहलाता था दीवाना तिरा

वो जिसे हि॰फ्ज़ था अ॰फ्साना तिरा

जिसकी दीवारों पे आवे॰जाँ थीं

तस्वीरें तिरी

वो जो दोहराता था

तक़रीरें तिरी

वो जो ख़ुश था तिरी ख़ुशियों से

 तिरे ग़म से उदास

दूर रहके जो समझता था

वो है तेरे पास

वो जिसे सज्दा तुझे करने से

इन्कार न था

उसको दरअस्ल कभी तुझसे

कोई प्यार न था

उसकी मुश्किल थी

कि दुश्वार थे उसके रस्ते

जिनपे बे॰खौ॰फो-ख़तर

घूमते रहज़न थे

सदा उसकी अना के दरपै

उसने घबराके

सब अपनी अना की दौलत

तेरी तहवील में रखवा दी थी

अपनी ज़िंल्लत को वो दुनिया की नज़र

और अपनी भी निगाहों से छिपाने के लिए

कामयाबी को तिरीr

तेरी ॰फुतूहात

 तिरी इ॰ज्ज़त को

वो तिरे नाम तिरीr शोहरत को

अपने होने का सबब जानता था

है वजूद उसका जुदा तुझसे

ये कब मानता था

वो मगर

पुरख़तर रास्तों से आज निकल आया है

वक़्त ने तेरे बराबर न सही

कुछ न कुछ अपना करम उसपे भी फ़रमाया है

अब उसे तेरी ज़रूरत ही नहीं

जिसका दावा था कभी

अब वो अक़ीदत ही नहीं

तेरी तहवील में जो रक्खी थी कल

उसने अना

आज वो माँग रहा है वापस

 बात इतनी-सी है

ऐ साहिबे-नामो-शोहरत

जिसको कल

तेरे ख़ुदा होने से इन्कार न था

वो कभी तेरा परस्तार न था।

 

***

 

ग़ज़ल

निगल गए सब की सब समुंदर, ज़मीं बची अब कहीं नहीं है बचाते हम अपनी जान जिसमें वो कश्ती भी अब कहीं नहीं है

 

बहुत दिनों बाद पाई ॰फुर्सत तो मैंने ख़ुद को पलटके देखा

मगर मैं पहचानता था जिसको वो आदमी अब कहीं नहीं है

 

गुज़र गया वक़्त दिल पे लिखकर न जाने कैसी अजीब बातें

वरक़ पलटता हूँ मैं जो दिल के तो सादगी अब कहीं नहीं है

 

वो आग बरसी है दोपहर में कि सारे मंज़र झुलस गए हैं

यहाँ सवेरे जो ताज़गी थी वो ताज़गी अब कहीं नहीं है

 

तुम अपने क़स्बों में जाके देखो वहाँ भी अब शहर ही बसे हैं

कि ढूँढते हो जो ज़िंदगी तुम वो ज़िंदगी अब कहीं नहीं है

 

***

 

ग़ज़ल

दर्द अपनाता है पराए कौन

कौन सुनता है और सुनाए कौन

 

कौन दोहराए फिर वही बातें

ग़म अभी सोया है, जगाए कौन

 

अब सुकूँ है तो भूलने में है

लेकिन उस शख्स को भुलाए कौन

 

वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं

कौन दुख झेले, आज़माए कौन

 

आज फिर दिल है कुछ उदास-उदास

देखिए आज याद आए कौन

 

***

 

अजीब क़िस्सा है

अजीब क़िस्सा है

जब ये दुनिया समझ रही थी

तुम अपनी दुनिया में जी रही हो

मैं अपनी दुनिया में जी रहा हूँ

तो हमने सारी निगाहों से दूर

एक दुनिया बसाई थी

जो कि मेरी भी थी

तुम्हारी भी थी

जहाँ फ़िज़ाओं में

दोनों के ख्वाब जागते थे

जहाँ हवाओं में

 दोनों की सरगोशियाँ घुली थीं

जहाँ के फूलों में

दोनों की आरज़ू के सब रंग

खिल रहे थे

जहाँ पे दोनों की जुरअतों के

हज़ार चश्मे उबल रहे थे

न वसवसे थे न रंजो-ग़म थे

सुकून का गहरा इक समुंदर था

और हम थे

 

अजीब क़िस्सा है

सारी दुनिया ने

जब ये जाना

कि हमने सारी निगाहों से दूर

एक दुनिया बसाई है तो

हर एक अबरू ने जैसे हम पर कमान तानी

तमाम पेशानियों पे उभरीं

ग़म और ॰गुस्से की गहरी शिकनें

किसी के लहजे से तल्॰खी छलकी

किसी की बातों में तुर्शा आई

किसी ने चाहा

कि कोई दीवार ही उठा दे

किसी ने चाहा

हमारी दुनिया ही वो मिटा दे

मगर ज़माने को हारना था

ज़माना हारा

ये सारी दुनिया को मानना ही पड़ा

हमारे ख़याल की एक-सी ज़मीं है

हमारे ख्वाबों का एक जैसा ही आस्माँ है

मगर पुरानी ये दास्ताँ है

कि हमपे दुनिया

अब एक अर्से से मेहरबाँ है

 

अजीब क़िस्सा है

जब कि दुनिया ने

कब का तस्लीम कर लिया है

हम एक दुनिया के रहने वाले हैं

सच तो ये है

तुम अपनी दुनिया में जी रही हो

मैं अपनी दुनिया में जी रहा हूँ।

 

 ***

 

ग़ज़ल

शुक्र है ख़ैरियत से हूँ साहब

आपसे और क्या कहूँ साहब

 

अब समझने लगा हूँ सूदो-ज़िंयाँ

अब कहाँ मुझमें वो जुनूँ साहब

 

ज़िंल्लते-॰जीस्त या शिकस्ते-ज़मीर

ये सहूँ मैं कि वो सहूँ साहब

 

हम तुम्हें याद करते, रो लेते

दो घड़ी मिलता जो सुकूँ साहब

 

शाम भी ढल रही है घर भी है दूर

कितनी देर और मैं रूकूँ साहब

 

अब झुकूँगा तो टूट जाऊँगा

कैसे अब और मैं झुकूँ साहब

 

कुछ रिवायात की गवाही पर

कितना जुर्माना मैं भरूँ साहब

 

 ***

 

ग़ज़ल

खुला है दर प तिरा इंतेज़ार जाता रहा

ख़ुलूस तो है मगर एतेबार जाता रहा

 

किसी की आँख में मस्ती तो आज भी है वही

मगर कभी जो हमें था ख़ुमार, जाता रहा

 

कभी जो सीने में एक आग थी वो सर्द हुई

कभी निगाह में जो था शरार जाता रहा

 

अजब-सा चैन था हमको कि जब थे हम बेचैन

क़रार आया तो जैसे क़रार जाता रहा

 

कभी तो मेरी भी सुनवाई होगी महिफ़ल में

मैं ये उम्मीद लिए बार-बार जाता रहा

 

 ***

 

ग़ज़ल

1

दश्ते-जुनूँ वीरानियाँ, क़ह्ते-सुकूँ हैरानियाँ, इक दिल और उसकी

बे-सरो-सामानियाँ, अज़ ख़ाकदाँ ता आस्माँ, तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ

 

चेहरा ज़मीं का ज़र्द है, लहजा हवा का सर्द है, पहने फ़िज़ाएँ हैं कफ़न

या गर्द है, मातम-कुनाँ है ये समाँ, तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ

 2

सब हमसफ़र अब खो चुके, हम हाथ सबसे धो चुके, हम सबको कब का रो चुके,

उम्मीद हसरत आरज़ू जितने फ़रो॰जाँ थे यहाँ गुल सब चिराग़ अब हो चुके

 

अब एक लम्बी रात है, अब एक ही तो बात है, अब दिल पे जैसे ग़म का

भारी हाथ है, अब इक यही है दास्ताँ, तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ

3

अब ये सफ़र दुश्वार है, हर हर क़दम दीवार है, हर लम्हा इक आज़ार है

अब रो॰जो-शब, शामो-सहर है वक़्त वो बीमार जो मरने से भी लाचार है

 

मजबूर होके ज़िंदगी, है साँस रोके ज़िंदगी, है गुंग अब आवाज़

खोके ज़िंदगी, हैं इस ख़मोशी में निहाँ तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ

4

सहमी हुई हैं ख्वाहिशें, ठिठकी हुई है काविशें, क्या दोस्ती क्या रंजिशें,

सब जैसे अब हैं बेअसर बेवाक़आ-सी ज़िंदगी की हैं अजब ये साज़शें

 

जो ग़म थे वो भी खो गए, दिल जैसे ख़ाली हो गए, कल जो थे अपने हमसफ़र

वो तो गए, अब हर तरफ़ हैं हुक्मराँ तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ

  5

ऐ ॰जीस्त ये तू ही बता, ये क्या हुआ कैसे हुआ, क्यों हमने पाई ये सज़ा

अब याद करते हैं अगर तो याद तक आता नहीं देखा था हमने ख्वाब क्या

 

क्या साज़ क्या जामो-सुबू, रूख़सत हुई हर आरज़ू, चारों पहर लगता है

जैसे चारसू, हैं साकितो-जामिद यहाँ तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँ

 

***

दिल

दिल वो सह्रा था

कि जिस सह्रा में

हसरतें

रेत के टीलों की तरह रहती थीं

जब हवादिस की हवा

उनको मिटाने के लिए

चलती थी

यहाँ मिटती थीं

कहीं और उभर आती थीं

शक्ल खोते ही

नई शक्ल में ढल जाती थीं

दिल के सह्रा पे मगर अब की बार

सानेहा गुज़रा कुछ ऐसा

कि सुनाए न बने

आँधी वो आई कि सारे टीले

ऐसे बिखरे

कि कहीं और उभर ही न सके

यूँ मिटे हैं

कि कहीं और बनाए न बने

अब कहीं

टीले नहीं

 रेत नहीं

रेत का ज़र्रा नहीं

दिल में अब कुछ भी नहीं

दिल को सह्रा भी अगर कहिए

तो कैसे कहिए।

 

***

आरज़ू के मुसाफ़र

जाने किसकी तलाश उनकी आँखों में थी

आरज़ू के मुसाफ़र

भटकते रहे

जितना भी वो चले

उतने ही बिछ गए

राह में फ़ासले

ख्वाब मंज़ल थे

और मंज़लें ख्वाब थीं

रास्तों से निकलते रहे रास्ते

जाने किस वास्ते

आरज़ू के मुसाफ़र भटकते रहे

 

जिनपे सब चलते हैं

ऐसे सब रास्ते छोड़के

एक अंजान पगडंडी की उंगली थामे हुए

इक सितारे से

उम्मीद बाँधे हुए सम्त की

हर गुमाँ को य॰कीं मानके

अपने दिल से

कोई धोखा खाते हुए जानके

सह्रा-सह्रा

समुंदर को वो ढ़ूंढते

कुछ सराबों की जानिब

रहे गामज़न

यूँ नहीं था

कि उनको ख़बर ही न थी

ये समुंदर नहीं

लेकिन उनको कहीं

शायद एहसास था

ये फ़रेब

उनको महवे-सफ़र रक्खेगा

ये सबब था

कि था और कोई सबब

जो लिए उनको फिरता रहा

मंज़लों -मां॰जिलों

रास्ते-रास्ते

जाने किस वास्ते

आरज़ू के मुसाफ़र भटकते रहे

 

अक्सर ऐसा हुआ

शहर-दर-शहर

और बस्ती-बस्ती

किसी भी दरीचे में

कोई चिरा॰गे-मुहब्बत न था

बेरू॰खी से भरी

सारी गलियों में

सारे मकानों के

दरवा॰जे यूँ बंद थे

जैसे इक सर्द

ख़ामोश लहजे में

वो कह रहे हों

मुरव्वत का और मेहरबानी का मस्कन

कहीं और होगा

यहाँ तो नहीं है

यही एक मंज़र समेटे थे

शहरों के पथरीले सब रास्ते

जाने किस वास्ते

आरज़ू के मुसाफ़र भटकते रहे

 

और कभी यूँ हुआ

आरज़ू के मुसाफ़र थे

जलती-सुलगती हुई धूप में

कुछ दर॰ख्तों ने साये बिछाए मगर

उनको ऐसा लगा

साये में जो सुकून

और आराम है

मंज़लों तक पहुँचने न देगा उन्हें

और यूँ भी हुआ

महकी कलियों ने ख़ुश्बू के पै॰गाम भेजे उन्हें

उनको ऐसा लगा

चंद कलियों पे कैसे क़नाअत करें

उनको तो ढूँढना है

वो गुलशन कि जिसको

किसी ने अभी तक है देखा नहीं

जाने क्यों था उन्हें इसका पूरा य॰कीं

देर हो या सवेर उनको लेकिन कहीं

ऐसे गुलशन के मिल जाएंगे रास्ते

जाने किस वास्ते

आरज़ू के मुसाफ़र भटकते रहे

 

धूप ढलने लगी

बस ज़रा देर में रात हो जाएगी

आरज़ू के मुसाफ़र जो हैं

उनके क़दमों तले

जो भी इक राह है

वो भी शायद अँधेरे में खो जाएगी

आरज़ू के मुसा॰फिर भी

अपने थके-हारे बेजान पैरों पे

कुछ देर तक लड़खड़ाएंगे

और गिरके सो जाएंगे

सिर्फ़ सन्नाटा सोचेगा ये रातभर

मंज़लें तो इन्हें जाने कितनी मिलींr

ये मगर

मंज़लों को समझते रहे जाने क्यों रास्ते

जाने किस वास्ते

आरज़ू के मुसाफ़र भटकते रहे

 

और फिर इक सवेरे की उजली किरन

तीरगी चीर के

जगमगा देगी

जब अनगिनत रहगुज़ारों पे बिखरे हुए

उनके न॰क्शे-क़दम

आिफ़यतगाहों में रहनेवाले

ये हैरत से मजबूर होके कहेंगे

ये न॰क्शे-क़दम सिर्फ़ न॰क्शे-क़दम ही नहीं

ये तो दरया॰फ्त हैं

ये तो ईजाद हैं

ये तो अ॰फ्कार हैं

ये तो अश्॰आर हैं

ये कोई र॰क्स हैं

ये कोई राग हैं

इनसे ही तो हैं आरास्ता

सारी तह॰जीबो-तारीख़ के

वक़्त के

ज़िंदगी के सभी रास्ते

 

वो मुसाफ़र मगर

जानते-बूझते भी रहे बेख़बर

जिसको छू लें क़दम

वो तो बस राह थी

उनकी मंज़ल दिगर थी

अलग चाह थी

जो नहीं मिल सके उसकी थी आरज़ू

जो नहीं है कहीं उसकी थी जुस्तुजू

शायद इस वास्ते

आरज़ू के मुसाफ़र भटकते रहे।

 

***

 

ग़ज़ल

बरसों की रस्मो-राह थी इक रोज़ उसने तोड़ दी

हुशियार हम भी कम नहीं, उम्मीद हमने छोड़ दी

 

गिरहें पड़ी हैं किस तरह, ये बात है कुछ इस तरह

वो डोर टूटी बारहा, हर बार हमने जोड़ दी

 

उसने कहा कैसे हो तुम, बस मैंने लब खोले ही थे

और बात दुनिया की तरफ़ जल्दी-से उसने मोड़ दी

 

वो चाहता है सब कहें, सरकार तो बेऐब हैं

जो देख पाए ऐब वो हर आँख उसने फोड़ दी

 

थोड़ी-सी पाई थी ख़ुशी तो सो गई थी ज़िंदगी

ऐ दर्द तेरा शुक्रिया, जो इस तरह झंझोड़ दी

 

***

 

ग़ज़ल

प्यास की कैसे लाए ताब कोई

नहीं दरिया तो हो सराब कोई

 

ज़॰ख्म दिल में जहाँ महकता है

इसी क्यारी में था गुलाब कोई

 

रात बजती थी दूर शहनाई

रोया पीकर बहुत शराब कोई

 

दिल को घेरे हैं रोज़गार के ग़म

रद्दी में खो गई किताब कोई

 

कौन-सा ज़॰ख्म किसने ब॰ख्शा है

इसका रक्खे कहाँ हिसाब कोई

 

फिर मैं सुनने लगा हूँ इस दिल की

आनेवाला है फिर अज़ाब कोई

 

शब की दहलीज़ पर शफ़क़ है लहू

फिर हुआ क़त्ल आ॰फ्ताब कोई

 

***

 

बरगद

मेरे रस्ते में इक मोड़ था

और उस मोड़ पर

पेड़ था एक बरगद का

ऊँचा

घना

जिसके साए में मेरा बहुत वक़्त बीता है

लेकिन हमेशा यही मैंने सोचा

कि रस्ते में ये मोड़ ही इसलिए है

कि ये पेड़ है

उम्र की आँधियों में

वो पेड़ एक दिन गिर गया

मोड़ लेकिन है अब तक वहीं का वहीं

 

देखता हूँ तो

आगे भी रस्ते में

बस मोड़ ही मोड़ हैं

पेड़ कोई नहीं

 

रास्तों में मुझे यूँ तो मिल जाते हैं मेहरबाँ

फिर भी हर मोड़ पर

पूछता है ये दिल

वो जो इक छाँव थी

खो गई है कहाँ।

 

***

शबाना

ये आए दिन के हंगामे

ये जब देखो सफ़र करना

यहाँ जाना - वहाँ जाना

इसे मिलना उसे मिलना

हमारे सारे लम्हे

ऐसे लगते हैं

कि जैसे ट्रेन के चलने से पहले

रेलवे स्टेशनों पर

जल्दी-जल्दी अपने डब्बे ढूँढते

कोई मुसाफ़र हों

जिन्हें कब सांस भी लेने की मुह्लत है

कभी लगता है

तुमको मुझसे मुझको तुमसे मिलने का

ख़याल आए

 कहाँ इतनी भी ॰फुर्सत है

 

मगर जब संगदिल दुनिया मेरा दिल तोड़ती है तो

कोई उम्मीद चलते चलते

जब मुँह मोड़ती है तो

कभी कोई ख़ुशी का फूल

जब इस दिल में खिलता है

कभी जब मुझको अपने ज़हन से

कोई ख़याल इन॰आम मिलता है

कभी जब इक तमन्ना पूरी होने से

ये दिल ख़ाली-सा होता है

कभी जब दर्द आके पलकों पे मोती पिरोता है

तो ये एहसास होता है

ख़ुशी हो ग़म हो हैरत हो

कोई जज़्बा हो

इसमें जब कहीं इक मोड़ आए तो

वहाँ पलभर को

सारी दुनिया पीछे छूट जाती है

वहाँ पलभर को

इस कठपुतली जैसी ज़िंदगी की

डोरी-डोरी टूट जाती है

मुझे उस मोड़ पर

बस इक तुम्हारी ही ज़रूरत है

मगर ये ज़िंदगी की ॰खूबसूरत इक हक़ीक़त है

कि मेरी राह में जब ऐसा कोई मोड़ आया है

तो हर उस मोड़ पर मैंने

तुम्हें हमराह पाया है।

 

***

 

ग़ज़ल

दस्तबरदार अगर आप ग़ज़ब से हो जाएं

हर सितम भूलके हम आपके अब से हो जाएं

 

चौदहवीं शब है तो खिड़की के गिरा दो पर्दे

कौन जाने कि वो नाराज़ ही शब से हो जाएं

 

एक ख़ुश्बू की तरह फैलते हैं महिफ़ल में

ऐसे अल्फ़ाज़ अदा जो तिरे लब से हो जाएं

 

न कोई इश्क़ है बाक़ी न कोई परचम है

लोग दीवाने भला किसके सबब से हो जाएं

 

बाँध लो हाथ कि फैलें न किसी के आगे

सी लो ये लब कि कहीं वा न तलब से हो जाएंं

 

बात तो छेड़ मिरे दिल, कोई क़िस्सा तो सुना

क्या अजब उन के भी जज़्बात अजब से हो जाएं

 

***

 

ग़ज़ल

मैं कब से कितना हूँ तन्हा तुझे पता भी नहीं

तिरा तो कोई ख़ुदा है मिरा ख़ुदा भी नहीं

 

कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ

कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं

 

कभी तो बात की उसने, कभी रहा ख़ामोश

कभी तो हँसके मिला और कभी मिला भी नहीं

 

कभी जो तल्ख़-कलामी थी वो भी ख़त्म हुई

कभी गिला था हमें उनसे अब गिला भी नहीं

 

वो चीख़ उभरी, बड़ी देर गूँजी, डूब गई

हर एक सुनता था लेकिन कोई हिला भी नहीं

 

***

कच्ची बस्ती

गलियाँ

और गलियों में गलियाँ

छोटे घर

नीचे दरवा॰जे

टाट के पर्दे

मैली बदरंगी दीवारें

दीवारों से सर टकराती

कोई गाली

गलियों के सीने पर बहती

गंदी नाली

गलियों के माथे पर बहता

आवाज़ों का गंदा नाला

 

आवाज़ों की भीड़ बहुत है

इंसानों की भीड़ बहुत है

कड़वे और कसीले चेहरे

बदहाली के ज़हर से हैं ज़हरीले चेहरे

बीमारी से पीले चेहरे

मरते चेहरे

हारे चेहरे

बेबस और बेचारे चेहरे

सारे चेहरे

 

एक पहाड़ी कचरे की

और उस पर फिरते

आवारा कुत्तों से बच्चे

अपना बचपन ढ़ूँढ रहे हैं

 

दिन ढलता है

इस बस्ती में रहनेवाले

औरों की जन्नत को अपनी मेहनत देकर

अपने जहन्नम की जानिब

अब थके हुए

झुंझलाए हुए-से

लौट रहे हैं

एक गली में

॰जंग लगे पीपे रक्खे हैं

कच्ची दारू महक रही है

 

आज सवेरे से

 बस्ती में

क़त्लो-॰खूँ का

चा॰कूज़नी का

कोई क़िस्सा नहीं हुआ है

ख़ैर

अभी तो शाम है

पूरी रात पड़ी है

 

यूँ लगता है

सारी बस्ती

जैसे इक दुखता फोड़ा है

यूँ लगता है

सारी बस्ती

जैसे है इक जलता कढ़ाव

यूँ लगता है

जैसे ख़ुदा नुक्कड़ पर बैठा

टूटे-फूटे इंसाँ

औने-पौने दामों

बेच रहा है।

 

***

एक शायर दोस्त से

घर में बैठे हुए क्या लिखते हो

बाहर निकलो

देखो क्या हाल है दुनिया का

ये क्या आलम है

सूनी आँखें हैं

सभी ख़ुशियों से ख़ाली जैसे

आओ इन आँखों में ख़ुशियों की चमक हम लिख दें

ये जो माथे हैं

 उदासी की लकीरों के तले

आओ इन माथों पे िक़स्मत की दमक हम लिख दें

चेहरों से गहरी ये मायूसी मिटाके

आओ

इनपे उम्मीद की इक उजली किरन हम लिख दें

दूर तक जो हमें वीराने नज़र आते हैं

आओ वीरानों पर अब एक चमन हम लिख दें

ल॰प॰Ìज-दर-लफ्ज़ समुंदर-सा बहे

मौज-ब-मौज

बह्रे-नग़मात में

हर कोहे-सितम हल हो जाए

 दुनिया दुनिया न रहे एक ग़ज़ल हो जाए।

 

***

 

ग़ज़ल

दिल का हर दर्द खो गया जैसे

मैं तो पत्थर का हो गया जैसे

 

दाग बाक़ी नहीं कि न॰क्श कहूँ

कोई दीवार धो गया जैसे

 

जागता ज़हन ग़म की धूप में था

छाँव पाते ही सो गया जैसे

 

देखनेवाला था कल उस का तपाक

फिर से वो ॰गैर हो गया जैसे

 

कुछ बिछड़ने के भी तरी॰वे हैं

ख़ैर, जाने दो जो गया जैसे

 

***

 

ग़ज़ल

अभी ज़मीर में थोड़ी-सी जान बाक़ी है

अभी हमारा कोई इम्तेहान बाक़ी है

 

हमारे घर को तो उजड़े हुए ज़माना हुआ

मगर सुना है अभी वो मकान बाक़ी है

 

हमारी उनसे जो थी गु॰फ्तगू, वो ख़त्म हुई

मगर सुकूत-सा कुछ दरमियान बाक़ी है

 

हमारे ज़हन की बस्ती में आग ऐसी लगी

कि जो था ख़ाक हुआ इक दुकान बाक़ी है

 

वो ज़॰ख्म भर गया अर्सा हुआ मगर अबतक

ज़रा-सा दर्द ज़रा-सा निशान बाक़ी है

 

ज़रा-सी बात जो फैली तो दास्तान बनी

वो बात ख़त्म हुई दास्तान बाक़ी है

 

अब आया तीर चलाने का फ़न तो क्या आया

हमारे हाथ में ख़ाली कमान बाक़ी है

 

***

 

ग़ज़ल

ये मुझसे पूछते हैं चारागर क्यों

कि तू ज़िंदा तो है अब तक, मगर क्यों

 

जो रस्ता छोड़के मैं जा रहा हूँ

उसी रस्ते पे जाती है नज़र क्यों

 

थकन से चूर पास आया था इसके

गिरा सोते में मुझपर ये शजर क्यों

 

सुनाएंगे कभी ॰फुर्सत में तुम को

कि हम बरसों रहे हैं दरबदर क्यों

 

यहाँ भी सब हैं बेगाना ही मुझसे

कहूँ मैं क्या कि याद आया है घर क्यों

 

मैं ख़ुश रहता अगर समæझा न होता

ये दुनिया है तो मैं हूँ दीदावर क्यों

 

***

 

ग़ज़ल

ज़िंदगी की आँधी में ज़हन का शजर तन्हा

तुमसे कुछ सहारा था, आज हूँ मगर तन्हा

 

ज़॰ख्म-ख़ुर्दा लम्हों को मसलेहत संभाले है

अनगिनत मरीज़ों में एक चारागर तन्हा

 

बूँद जब थी बादल में ज़िंदगी थी हलचल में

॰कैद अब सदफ़ में है बनके है गुहर तन्हा

 

तुम ॰फु॰जूल बातों का दिल पे बोझ मत लेना

हम तो ख़ैर कर लेंगे ज़िंदगी बसर तन्हा

 

इक खिलौना जोगी से खो गया था बचपन में

ढूँढता फिरा उसको वो नगर-नगर तन्हा

 

झुटपुटे का आलम है जाने कौन आदम है

इक लहद पे रोता है मुँह को ढाँपकर तन्हा

 

***

 

ग़ज़ल

वो ज़माना गुज़र गया कब का

था जो दीवाना मर गया कब का

 

ढ़ूँढता था जो इक नई दुनिया

लौटके अपने घर गया कब का

 

वो जो लाया था हमको दरिया तक

पार अकेले उतर गया कब का

 

उसका जो हाल है वही जाने

अपना तो ज़॰ख्म भर गया कब का

 

ख्वाब-दर-ख्वाब था जो शीराज़ा

अब कहाँ है, बिखर गया कब का

 

***

 

ग़ज़ल

ये दुनिया तुमको रास आए तो कहना

न सर पत्थर से टकराए तो कहना

 

ये गुल काग़ज़ हैं, ये ॰जेवर हैं पीतल

समझ में जब ये आ जाए तो कहना

 

बहुत ख़ुश हो कि उसने कुछ कहा है

न कहकर वो मुकर जाए तो कहना

 

बहल जाओगे तुम ग़म सुनके मेरे

कभी दिल ग़म से घबराए तो कहना

 

धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है

न पूरे शहर पर छाए तो कहना

 

***

बरवक़्त एक और ख़याल

ख़याल आता है

जैसे बच्चों की आँख बादल में

शेर और हाथी देखती है

बहुत-से लोगों ने

वक़्त में भी

शऊर बीनाई और समाअत

के वस्फ़ देखे

बहुत-से लोगों की जुस्तुजू के सफ़र का अंजाम

इस अक़ीदे  की छाँव में है

कि वक़्त कहते हैं जिसको

दर अस्ल वो ख़ुदा है

 

मगर है जिसको तलाश सच की

भटक रहा है

 

ये इक सवाल

उसके ज़हनो-दिल में

खटक रहा है

ये वक़्त क्या है?

 

***

अजीब आदमी था वो

(कैफ़ी साहब)

अजीब आदमी था वो

मुहब्बतों का गीत था,

ब॰गावतों का राग था

कभी वो सिर्फ़ फूल था

कभी वो सिर्फ़ आग था

अजीब आदमी था वो

 

वो मुफ़लिसों  से कहता था

कि दिन बदल भी सकते हैं

वो जाबिरों से कहता था

तुम्हारे सर पे सोने के जो ताज हैं

कभी पिघल भी सकते हैं

 

वो बंदिशों से कहता था

मैं तुमको तोड़ सकता हूँ

सहूलतों से कहता था

मैं तुमको छोड़ सकता हूँ

हवाओं से वो कहता था

मैं तुमको मोड़ सकता हूँ

 

वो ख्वाब से ये कहता था

कि तुझको सच करूँगा मैं

वो आरज़ू से कहता था

मैं तेरा हमसफ़र हूँ

तेरे साथ ही चलूँगा मैं

तू चाहे जितनी दूर भी बना ले अपनी मंज़लें

कभी नहीं थकूँगा मैं

 

वो ज़िंदगी से कहता था

कि तुझको मैं सजाऊँगा

तू मुझसे चाँद माँग ले

मैं चाँद लेके आऊँगा

 

वो आदमी से कहता था

कि आदमी से प्यार कर

उजड़ रही है ये ज़मीं

कुछ इसका अब सिंघार कर

 

अजीब आदमी था वो

 

वो ज़िंदगी के सारे ग़म

तमाम दुख

हर इक सितम से कहता था

मैं तुमसे जीत जाऊँगा

कि तुमको तो मिटा ही देगा

एक रोज़ आदमी

भुला ही देगा ये जहाँ

मिरी अलग है दास्ताँ

 

वो आँखें जिनमें ख्वाब हैं

वो दिल है जिनमें आरज़ू

वो बा॰जू जिनमें है सकत

वो होंठ जिनपे लफ्ज़ हैं

रहूँगा उनके दरमियाँ

कि जब मैं बीत जाऊँगा

 

अजीब आदमी था वो।

 

***

 

ग़ज़ल

आज मैंने अपना फिर सौदा किया

और फिर मैं दूर से देखा किया

 

ज़िंदगी भर मेरे काम आए उसूल

एक-इक करके उन्हें बेचा किया

 

बँध गई थी दिल में कुछ उम्मीद-सी

ख़ैर, तुमने जो किया अच्छा किया

 

कुछ कमी अपनी वफ़ाओं में भी थी

तुमसे क्या कहते कि तुमने क्या किया

 

क्या बताऊँ कौन था जिसने मुझे

इस भरी दुनिया में है तन्हा किया

 

***

मेले

बाप की उँगली थामे

इक नन्हा-सा बच्चा

पहले-पहल मेले में गया तो

अपनी भोली-भाली

कंचों जैसी आँखों से

इक दुनिया देखी

ये क्या है और वो क्या है

सब उसने पूछा

बाप ने झुककर

कितनी सारी चीज़ों और खेलों का

उसको नाम बताया

नट का

बा॰जीगर का

जादूगर का

उसको काम बताया

फिर वो घर की जानिब लौटे

गोद के झूले में

बच्चे ने बाप के कंधे पर सर रक्खा

बाप ने पूछा

नींद आती है

 

वक़्त भी एक परिंदा है

उड़ता रहता है

 

गाँव में फिर इक मेला आया

 बूढ़े बाप ने काँपते हाथों से

बेटे की बांह को थामा

और बेटे ने

ये क्या है और वो क्या है

जितना भी बन पाया

समझाया

बाप ने बेटे के कंधे पर सर रक्खा

बेटे ने पूछा

नींद आती है

बाप ने मुड़के

याद की पगडंडी पर चलते

बीते हुए

सब अच्छे-बुरे

और कड़वे-मीठे

लम्हों के पैरों से उड़ती

धूल को देखा

फिर

अपने बेटे को देखा

होंठों पर

इक हलकी-सी मुस्कान आई

हौले-से बोला

हाँ!

मुझको अब नींद आती है।

 

***

मोनताज

नींद के बादलों के पीछे है

मुस्कुराता हुआ कोई चेहरा

चेहरे पे बिखरी एक रेशमी लट

सरसराता हुआ कोई आँचल

और दो आँखें हैराँ-हैराँ-सी

 

इक मुलाक़ात

इक हसीं लम्हा

झील का ठहरा-ठहरा-सा पानी

पेड़ पर चहचहाती इक चिड़िया

घास पर खिलते नन्हे-नन्हे फूल

॰खूबसूरत लबों पे नर्म-सी बात

 

दोपहर एक पीली-पीली-सी

बर्फ़-सी ठंडक एक लहजे में

टूटा आईना

उड़ते कुछ काæगज़

मुन्हदिम पुल

अधूरी एक सड़क

किरचों-किरचों बिखरता इक मंज़र

पलकों पर झिलमिलाता एक आँसू

गहरा सन्नाटा शोर करता हुआ

नींद के बादलों के पीछे है।

 

***

 

ग़ज़ल

किसलिए कीजे बज़्म-आराई

पुरसुकूँ हो गई है तन्हाई

 

फिर ख़मोशी ने साज़ छेड़ा है

फिर ख़यालात ने ली अंगड़ाई

 

यूँ सुकूँ-आशना हुए लम्हे

बूँद में जैसे आए गहराई

 

इक से इक वाक़आ हुआ लेकिन

न गई तेरे ग़म की यकताई

 

कोई शिकवा न ग़म, न कोई याद

बैठे-बैठे बस आँख भर आई

 

ढलकी शानों से हर य॰कीं की क़बा

ज़िंदगी ले रही है अंगड़ाई

 

***

 

ग़ज़ल

न ख़ुशी दे तो कुछ दिलासा दे

दोस्त, जैसे हो मुझको बहला दे

 

आगही से मिली है तन्हाई

आ मिरी जान मुझको धोका दे

 

अब तो तक्मील की भी शर्त नहीं

ज़िंदगी अब तो इक तमन्ना दे

 

ऐ सफ़र इतना राएगाँ तो न जा

न हो मंज़िल कहीं तो पहुँचा दे

 

तर्क करना है गर तअल्लुक़ तो

ख़ुद न जा तू किसी से कहला दे

 

***

पन्द्रह अगस्त

(ये नज़्म  अगस्त  को हिंदुस्तानी पार्लियामेंट में उसी जगह सुनाई गई थी जहाँ से  अगस्त  में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आज़ादी का एलान किया था)

 

यही जगह थी यही दिन था और यही लम्हात

सरों पे छाई थी सदियों से इक जो काली रात

इसी जगह इसी दिन तो मिली थी उसको मात

इसी जगह इसी दिन तो हुआ था ये एलान

अँधेरे हार गए ज़िंदाबाद हिंदुस्तान

यहीं तो हमने कहा था ये कर दिखाना है

जो ज़॰ख्म तन पे है भारत के उसको भरना है

जो दाग़ माथे पे भारत के है मिटाना है

यहीं तो खाई थी हम सबने ये क़सम उस दिन

यहीं से निकले थे अपने सफ़र पे हम उस दिन

यहीं था गूँज उठा वंदे मातरम् उस दिन

 

है जुरअतों का सफ़र वक़्त की है राहगुज़र

नज़र के सामने है साठ मील का पत्थर

कोई जो पूछे किया क्या है कुछ किया है अगर

तो उससे कह दो कि वो आए देख ले आकर

लगाया हमने था जम्हूरियत का जो पौधा

वो आज एक घनेरा-सा ऊँचा बरगद है

और उसके साये में क्या बदला, कितना बदला है

कब इन्तेहा है कोई इसकी कब कोई हद है

 

चमक दिखाते हैं ज़र्रे अब आस्मानों को

ज़बान मिल गई है सारे बेज़बानों को

जो ज़ुल्म सहते थे वो अब हिसाब माँगते हैं

सवाल करते हैं और फिर जवाब मांगते हैं

ये कल की बात है सदियों पुरानी बात नहीं

कि कल तलक था यहाँ कुछ भी अपने हाथ नहीं

विदेशी राज ने सब कुछ निचोड़ डाला था

हमारे देश का हर करघा तोड़ डाला था

जो मुल्क सूई की ख़ातिर था औरों का मोहताज

हज़ारों चीज़ें वो दुनिया को दे रहा है आज

नया ज़माना लिये इक उमंग आया है

करोड़ों लोगों के चेहरे पे रंग आया है

ये सब किसी के करम से, न है इनायत से

यहाँ तक आया है भारत ख़ुद अपनी मेहनत से

 

जो कामयाबी है उसकी ख़ुशी तो पूरी है

मगर ये याद भी रखना बहुत ज़रूरी है

कि दास्तान हमारी अभी अधूरी है

बहुत हुआ है मगर फिर भी ये कमी तो है

बहुत-से होंठों पे मुस्कान आ गई लेकिन

बहुत-सी आँखें हैं जिनमें अभी नमी तो है

 

यही जगह थी यही दिन था और यही लम्हात

यहीं तो देखा था इक ख्वाब सोची थी इक बात

मुसाफ़रों के दिलों में ख़याल आता है

हर इक ज़मीर के आगे सवाल आता है

वो बात याद है अब तक हमें कि भूल गए

वो ख्वाब अब भी सलामत हैं या ॰फु॰जूल गए

चले थे दिल में लिए जो इरादे पूरे हुए

जो हमने ख़ुद से किए थे वो वादे पूरे हुए

ये कौन है कि जो यादों में च॰र्खा कातता है

ये कौन है जो हमें आज भी बताता है

है वादा ख़ुद से निभाना हमें अगर अपना

तो कारवाँ नहीं रूक पाये भूलकर अपना

है थोड़ी दूर अभी सपनों का नगर अपना

मुसाफ़रो अभी बाक़ी है कुछ सफ़र अपना ।

 

***

 

ग़ज़ल

मैं ख़ुद भी कब ये कहता हूँ कोई सबब नहीं

तू सच है मुझको छोड़ भी दे तो अजब नहीं

 

वापस जो चाहो जाना तो जा सकते हो मगर

अब इतनी दूर आ गए हम, देखो अब नहीं

 

ज़र का, ज़रूरतों का, ज़माने का, दोस्तो

करते तो हम भी हैं मगर इतना अदब नहीं

 

मेरा ख़ुलूस है तो हमेशा के वास्ते

तेरा करम नहीं है कि अब है और अब नहीं

 

आए वो रो॰जो-शब कि जो चाहे थे रो॰जो-शब

तो मेरे रो॰जो-शब भी मिरे रो॰जो-शब नहीं

 

दुनिया से क्या शिकायतें,लोगों से क्या गिला

हमको ही ज़िंदगी से निभाने का ढब नहीं

 

***

हमसाये के नाम

कुछ तुमने कहा

कुछ मैंने कहा

और बढ़ते-बढ़ते बात बढ़ी

दिल ऊब गया

दिन डूब गया

और गहरी-काली रात बढ़ी

 

तुम अपने घर

मैं अपने घर

सारे दरवा॰जे बंद किए

बैठे हैं कड़वे घूंट पिए

ओढ़े हैं ॰गुस्से की चादर

 

कुछ तुम सोचो

कुछ मैं सोचूँ

क्यों ऊँची हैं ये दीवारें

कब तक हम इन पर सर मारें

कब तक ये अँधेरे रहने हैं

कीना के ये घेरे रहने हैं

चलो अपने दरवा॰जे खोलें

और घर से बाहर आएं हम

दिल ठहरे जहाँ हैं बरसों से

वो इक नुक्कड़ है नफ़रत का

कब तक इस नुक्कड़ पर ठहरें

अब उसके आगे जाएं हम

बस थोड़ी दूर इक दरिया है

जहाँ एक उजाला बहता है

वाँ लहरों-लहरों हैं किरनें

 और किरनों-किरनों हैं लहरें

उन किरनां में

उन लहरों में

हम दिल को ॰खूब नहाने दें

सीनों में जो इक पत्थर है

उस पत्थर को घुल जाने दें

दिल के इक कोने में भी छुपी

गर थोड़ी-सी भी नफ़रत है

उस नफ़रत को धुल जाने दें

दोनों की तरफ़ से जिस दिन भी

इ॰ज्हार नदामत का होगा

तब जश्न मुहब्बत का होगा।

 

***

 

ग़ज़ल

हमारे दिल में अब तल्॰खी नहीं है

मगर वो बात पहले-सी नहीं है

 

मुझे मायूस भी करती नहीं है

यही आदत तिरी अच्छी नहीं है

 

बहुत-से फ़ायदे हैं मसलेहत में

मगर दिल की तो ये म॰र्जा नहींr है

 

हर इक की दास्ताँ सुनते हैं जैसे

कभी हमने मुहब्बत की नहीं है

 

है इक दरवाज़ा बिन दीवार दुनिया

मफ़र ग़म से यहाँ कोई नहीं है

 

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ग़ज़ल

याद उसे भी एक अधूरा अफ़साना तो होगा

कल रस्ते मेंं उसने हमको पहचाना तो होगा

 

डर हमको भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से

लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल, अब जाना तो होगा

 

कुछ बातों के मतलब हैं और कुछ मतलब की बातें

जो ये ॰फ़॰र्क समझ लेगा वो दीवाना तो होगा

 

दिल की बातें नहीं हैं तो दिलचस्प ही कुछ बातें हों

ज़िंदा रहना है तो दिल को बहलाना तो होगा

 

जीत के भी वो शर्मिंदा है, हार के भी हम ना॰जाँ

कम से कम वो दिल ही दिल में ये माना तो होगा

 

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ग़ज़ल

दर्द कुछ दिन तो मेह्माँ ठहरे

हम बिज़द हैं कि मेज़बाँ ठहरे

 

सिर्फ़ तन्हाई सिर्फ़ वीरानी

ये नज़र जब उठे जहाँ ठहरे

 

कौन-से ज़॰ख्म पर पड़ाव किया

दर्द के क़ाफ़ले कहाँ ठहरे

 

कैसे दिल में ख़ुशी बसा लूँ मैं

कैसे मुटठी में ये धुआँ ठहरे

 

थी कहीं मसलेहत कहीं जुअर्त

हम कहीं इनके दरमियाँ ठहरे

 

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पेड़ से लिपटी बेल

एक पुराने

और घनेरे पेड़ की इक डाली से लिपटी

बेल में

सारी पेड़ की रंगत

पेड़ की ख़ुश्बू

समा गई थी

बेल भी पेड़ का इक हिस्सा थी

पेड़ के बारे में

यूँ तो सौ अ॰फ्साने थे

बेल का कोई ज़िंक्र नहीं था

वो ख़ामोश-सा इक क़िस्सा थी

 

पेड़ पे रंगों का मौसम था

बेल पे जैसे

हल्की-सी मुस्कान के

नन्हें फूल खिले थे

लेकिन

फिर ये मौसम बदला

और बड़ी ज़हरीली हवाएं

पेड़ गिराने

चारों दिशाओं से जब लपकीं

यूँ लगता था

पेड़ हवा में

पत्ता-पत्ता बिखर रहा है

यूँ लगता था

सारी शाखें टूट रही हैं

यूँ लगता था

सारी जड़ें अब उखड़ रही हैं

पल दो पल में

पेड़ ज़मीं पर

मुँह के बल गिरनेवाला है

पर जो हुआ

वो क़िस्सा भी सुनने वाला है

 

पेड़ जो काँपा

बेल के तन-मन में जैसे

इक बिजली दौड़ी

रेशम जैसी बेल का रेशा-रेशा

जैसे लोहे का इक तार बना

और बेल ने

सारी टूटी शा॰खों को

यूँ बाँधा

पेड़ के सारे घायल तन को

यूँ लिपटाया

पेड़ की हर ज़॰ख्मी डाली को

 कुछ यूँ थामा

जितनी थीं ज़हरीली हवाएं

पेड़ से सर टकरा-टकरा के

हार गई हैं

हाँप रही हैं

होके परीशाँ

हक्का-बक्का देख रही हैं

 

वक़्त के भी हैं खेल निराले

बेल अपनी बाँहों में अब है पेड़ संभाले

धीरे-धीरे

घायल शा॰खों पर

पत्ते फिर निकल रहे हैं

धीरे-धीरे

नई जड़ें फूटी हैं

और धरती में गहरी उतर रही हैं

बेल पे जैसे

एक नई मुस्कान के नन्हे फूल खिले हैं।

 

***